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यद्रो॑दसी प्र॒दिवो॒ अस्ति॒ भूमा॒ हेळो॑ दे॒वाना॑मु॒त म॑र्त्य॒त्रा। तदा॑दित्या वसवो रुद्रियासो रक्षो॒युजे॒ तपु॑र॒घं द॑धात ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad rodasī pradivo asti bhūmā heḻo devānām uta martyatrā | tad ādityā vasavo rudriyāso rakṣoyuje tapur aghaṁ dadhāta ||

पद पाठ

यत्। रो॒द॒सी॒ इति॑। प्र॒ऽदिवः॑। अस्ति॑। भूमा॑। हेळः॑। दे॒वाना॑म्। उ॒त। म॒र्त्य॒ऽत्रा। तत्। आ॒दि॒त्याः॒। व॒स॒वः॒। रु॒द्रि॒या॒सः॒। र॒क्षः॒ऽयुजे॑। तपुः॑। अ॒घम्। द॒धा॒त॒ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:62» मन्त्र:8 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:2» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या धारण करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वसवः) पृथिवी आदि (रुद्रियासः) प्राण वा जीव वा (आदित्याः) काल के अवयवों के समान प्रथम मध्यम और उत्तम विद्वानो ! तुम (यत्) जो (प्रदिवः) उत्तम प्रकाश के वा (देवानाम्) विद्वानों के सम्बन्ध में (उत) और (मर्त्यत्रा) मनुष्यों में (भूमा) व्यापक (हेळः) अनादर (रोदसी) द्यावापृथिवी को प्राप्त (अस्ति) है और जैसे उक्त प्रकार के विद्वान् जन (तत्) उसको (दधात) धारण करते हैं, वैसे (रक्षोयुजे) दुष्टों के युक्त करनेवाले के लिये (तपुः) सन्ताप और (अघम्) अपराध को धारण करो ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त, सब को धारण करने वा सब का नियम करनेवाला है, उसको धारण कर और अच्छे प्रकार ध्यान कर सुखी होओ और जो ऐसा नहीं करता है, उस पर कठोर दण्ड धरो ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं धरेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे वसवो रुद्रियास आदित्याः प्रथममध्यमोत्तमा विद्वांसो ! यूयं यत्प्रदिवो देवानामुत मर्त्यत्रा भूमा हेळो रोदसी प्राप्तोऽस्ति यथा वसवो रुद्रियास आदित्यास्तद्दधात तथा रक्षोयुजे तपुरघं दधात ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यः (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (प्रदिवः) प्रकृष्टप्रकाशस्य (अस्ति) (भूमा) व्यापकः (हेळः) अनादरः (देवानाम्) विदुषाम् (उत) (मर्त्यत्रा) मर्त्येषु मनुष्येषु (तत्) (आदित्याः) कालावयवाः (वसवः) पृथिव्यादयः (रुद्रियासः) प्राणा जीवाश्च (रक्षोयुजे) यो रक्षांसि दुष्टान् मनुष्यान् युनक्ति तस्मै (तपुः) सन्तापम् (अघम्) अपराधम् (दधात) धरन्ति ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यद्ब्रह्म सर्वत्र व्याप्तं सर्वधर्तृ सर्वनियन्तृ वर्त्तते तद्धृत्वा सन्ध्याय सुखयत यश्चैवं न करोति तदुपरि कठोरं दण्डं धत्त ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जो ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त असून सर्वांना धारण करणारा व सर्वांसाठी नियम बनविणारा आहे त्याला धारण करून चांगल्या प्रकारे ध्यान करा व सुखी व्हा. जो असे वागत नाही त्याला कठोर दंड द्या. ॥ ८ ॥